रविवार, 29 अप्रैल 2018



तन्हाई 


यहाँ बैठा हूँ तन्हा सा, बस मैं  हूँ और तन्हाई है,

आँखों से अश्रु उमड़ रहे, यादों ने ली अंगड़ाई है।
मन व्याकुल है, दिल रोता है, और आँखें है पथराई सी,
गुजरे लम्हों की यादें है, बनती - मिटती परछाईं सी।


एक बचपन था, उम्मीदें थी, कुछ करने की, कुछ पाने की,
एक जज्बा था और ताक़त थी, राहों पे बढ़ते जाने की।
फिर आयी जवानी अल्हड़ सी, दिल मेरा हिलोरें लेता था,
हर मुश्किल पथ को मैं बढ़कर, झट से आसान कर देता था। 


उस अल्हड़पन में जीवन के, जाने कितने दिन बीत गये,
वो चंद ख़्वाब, जो मेरे थे, जाने कब कैसे रीत गये।
कुछ दोस्त कमाये थे मैंने, सब ख़र्च हुए यूँ जीने में,
और वक़्त भी मैंने गवां दिया, कुछ शब् के प्याले पीने में। 


अब जीवन के इस मोड़ पे मैं, फिर खुद को तन्हा पता हूँ,
शायद सुन ले कोई गीत मेरा, दिल की वीणा से गाता हूँ। 
है बुझने को जीवन आशा, अब ख़्वाब मेरे अंधियारे हैं ,
जीवन मंज़िल अब पास ही है, बस चंद बचे गलियारे हैं। 

ये व्यथा नहीं है कोई इसे, तुम जीवन मर्म समझ लेना ,
गर खबर मिले मैं चला गया, तुम प्रकृति धर्म समझ लेना। 
मैं खाली हाथ ही आया था और छोड़ यहीं सब जाऊँगा , 
तुम भ्रम निद्रा में सो जाना, मैं स्वप्नों में आ जाऊँगा।